खोया बटुआ

खोया बटुआ

बात बहुत पुरानी है, उन दिनों की जब मैं कॉलेज में पढ़ा करता था। डिप्लोमा का दूसरा वर्ष था और मैं कॉलेज के हॉस्टल का छात्र था।
हॉस्टल में एक कमरे में हम तीन साथी रहा करते थे, कॉलेज शुरू हुए करीब करीब 18 माह हो चुके थे। अधिकतर सभी छात्र एक दूसरे को बहुत अच्छे से जानने लगे थे और सबने अपने अपने दोस्त या साथी भी चुन लिए थे। सबके अपने अपने खेमे और ग्रुप थे, हालांकि आपसी सद्भाव सभी में था पर फिर भी कौन किसका सखा है और कौन नहीं ऐसी अनकही रेखाएं खींची जा चुकी थी।
दशहरा से कुछ पहले अचानक मुझे तेज बुखार हो गया, जिस की वजह से मुझे 2/3 दिन की छुट्टी लेनी पड़ी, बाकी सारे रूममेट और अन्य छात्र कॉलेज चले जाते और मैं दिन भर कमरे में पड़ा या तो बुखार से तड़फता रहता या फिर दवाओं और बुखार की वजह से सारा दिन ऊंघता रहता। दोस्तों ने डॉक्टर से दवाई दिलवा दी थी और सुबह शाम मेरी तीमारदारी भी करते पर सबके लिए पढ़ाई भी जरूरी थी, इसलिए दिनभर कमरे में अकेले ही रहना पड़ता।
उन दिनों घर से हर माह 200 रुपए मिला करते थे जो किसी खजाने से कम नहीं होते थे, इसलिए एक एक रुपया बहुमूल्य हुआ करता था। महीने का करीब करीब आखिर आ रहा था और मेरे पास ले दे के करीब 60.00 रुपए बाकी थे। हॉस्टल में सब तरह के लड़के थे जिनमे कुछ शराबी कबाबी भी थे, उन्हे पैसों की हर समय जरूरत रहती थी। उस जमाने में कॉलेज का पहचानपत्र ही हमारा बटुआ होता था जिसके कवर में दबा कर पैसे रखे जाते थे।
हालांकि हॉस्टल में हम सब को अपनी अपनी अलमारी मिली हुई थी जिसमे हर कोई अपनी किताबें कॉपियां कपड़े इत्यादि संभाल कर, ताला लगा कर रखता था, पर पैसे हमेशा अपने पास या फिर किसी महफूज जगह पर रखते थे, क्योंकि अलमारी और ताले उस्तादों के सामने काम नहीं करते।
इसीलिए मैं अपना खजाना कभी गद्दे के नीचे तो कभी कभी जुराबों में छुपा कर ही सोता था।
खैर साहब दिन के करीब 12 बजे हमारी ही क्लास का पर दूसरे ग्रुप का एक लड़का टहलता हुआ मेरे कमरे को खुला देख आ गया। नाम तो याद नहीं पर उसको हम बागड़ी कह कर बुलाते थे। हॉस्टल में उसके कम ही दोस्त थे और उसका बर्ताव काफी संदेहास्पद था। 
मेरी भी उससे कोई खास दोस्ती नहीं थी।
उसने बड़ी आत्मीयता से मेरा हाल पूछा, कुछ खाया या नहीं पूछा, दवा ले ली ना..... या मैं ला दूं उसने पूछा।
बुखार ज्यादा था और मुझ पर नशा सा तारी था, मैं चाह रहा था वो जल्दी से जाए तो मैं दरवाजा बंद करके सो जाऊं। साथ ही उसका कमरे में घूमना, चीजों को छुना मुझे पसंद नहीं आ रहा था। आखिर वो करीब 10/15 मिनट बात करके जाने लगा और जाते जाते मुझे बोला अगर कुछ जरूरत हो तो मुझको आवाज दे देना।
उसके जाते ही मैंने दरवाजा बंद किया और बुखार के नशे में सो गया। शाम को मेरे रूम मेट आए तो मैने उन्हे बागड़ी के बारे में बताया। वो दोनो बोले यार उसको क्यों आने दिया, साला शक्ल से ही चोर दिखता है।
खैर, बात आई गई हो गई। दो दिन में मेरा बुखार भी उतर गया।
ठीक होने के बाद मुझे अपने खजाने की याद आई तो मैंने तुरंत ही अपने तहखाने (गुप्त स्थान) पर चेक किया, पर 50 का नोट गायब था। मैने सब जगह ढूंढा पर मुझे कहीं वो नोट नहीं मिला।
मेरे शक की सुई बागड़ी की तरफ घूम गई, हो ना हो उस दिन मौका देख कर उसी ने मेरा 50 का नोट चुरा लिया था। मैने और मेरे रूम पार्टनर ने उसके नाम ये चोरी अंकित कर दी, पर क्योंकि कोई सबूत नहीं था और उस दिन की घटनाएं भी मुझे धुंधली सी ही याद थी इसलिए नजरों के सामने चोर होते हुए भी हम उसको कुछ नहीं कह पा रहे थे।
हां हमने पक्का कर लिया कि अब बागड़ी चोर को कमरे में नहीं आने देंगे।
वैसे तो रकम बहुत बड़ी थी, पर धीरे धीरे मैंने उसे भुला ही दिया, पर फिर भी बागड़ी को देखते ही मेरा जख्म हरा हो जाता और मैं मन ही मन उसे कोसने से नहीं चूकता।
उस साल कुछ कारणवश मैं दिवाली की छुट्टियों में घर नहीं जा पाया था, मेरे साथ साथ कुछ 5/6 लड़के और भी थे।
दिवाली से दो दिन पहले मैंने सोचा क्यूं ना दिवाली पर रूम की सफाई की जाय। वैसे भी मौका दिवाली का था तो इसी बहाने महीनों बाद झाड़ू उठा कर मैने लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने की ठान ली।
महीनों की गंदगी को करीब एक घंटे में साफ करने के बाद सोचा क्यूं ना लगे हाथों तख्त भी झाड़ कर बिछाया जाए। अलमारी से दूसरी साफ चादर निकाली और पहले चादर फिर गद्दा और फिर दरी को तख्त से हटाया ( हां जी स्टूडेंट लाइफ में बिस्तर झाड़ने का काम 6 से 12 महीने में एक बार ही किया जाता है, वो भी खास ग्रह नक्षत्र में ही)
दरी को हटाते ही लक्ष्मी जी मुस्कुराती हुई सामने आ गई, जी हां साक्षात लक्ष्मी जी, नहीं समझे...... तख्त पर 50 का नोट मुस्कुरा रहा था। दिवाली से पहले लक्ष्मी जी का आना वो भी एक दरिद्र विद्यार्थी के पास किसी करिश्में से कम नहीं होता।
खुशी के मारे मैं तो झूमने गाने लगा, सच बताऊं आज हजारों रुपए भी मिल कर उतनी खुशी नहीं दे सकते जितना उस एक 50 के नोट ने मुझे प्रदान की।
तुरंत ही मन में मनसूबे बनने शुरू हो गए कैसे इस खजाने को खर्च करके अपनी दिवाली को रौशन बनाना है। सच मानिए कौन बनेगा करोड़पति में 7 करोड़ जीत कर भी किसी को इतनी खुशी इतना सुकून नहीं मिल सकता जितना उस 50 के नोट को मिलने से मुझे मिली।
10/15 मिनट बाद जब भावनाओं पर पूरा काबू पा लिया तो फिर सोचना शुरू किया कि ये खजाना आया कहां से?
तुरंत ही मुझे याद आ गया अपने 50 के नोट खोने का किस्सा।
हुआ दरअसल ये था, शायद बुखार की अधिकता में बजाय गद्दे और दरी के बीच नोट छुपाने की जगह मैंने गलती से नोट दरी के नीचे खिसका दिया होगा और फिर जब मुझे नहीं मिला तो बेचार बागड़ी को चोर मान लिया।
उस दिन मेरा मन आत्मग्लानि से भर आया।
बेचारा बागड़ी, वो तो एक अच्छे इंसान एक साथी के रूप में मेरी मदद करने आया था और मेरी खुद की बेवकूफी की वजह से मैं न जाने क्या क्या उसके बारे में सोचता रहा।
अच्छी बात सिर्फ एक हुई कि हम में से किसी ने उस को प्रत्यक्ष में कुछ कहा नहीं।
बाद में मैंने अपने रूम मेट्स को भी पूरी सच्चाई बता दी।
हालांकि उस दिन के बाद बागड़ी से मेरी दोस्ती तो नहीं हुई पर मेरे मन में जो मैल था ना केवल वो धुल गया अपितु मेरी नज़र में उसका सम्मान बढ़ गया।
मुझे नहीं मालूम आज वो कहां है। पर इस रचना के माध्यम से मैं उस से क्षमा जरूर मांगना चाहता हूं। उस एक घटना ने मुझे कभी न भूलने वाला एक सबक दिया है, कभी कभी हम लोग सुनी सुनाई बातों पर विश्वास करके किसी भी इंसान के प्रति अपना एक दृष्टिकोण बना लेते है और उसे ही सच मांन लेते है, जो सरासर ग़लत है।

दोस्तों, ये कोई किस्सा नहीं खुद मेरा अनुभव है।

समाप्त

आभार – नवीन पहल – १५.०५.२०२२ 🙏🙏😌😌
# प्रतियोगिता हेतु

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9 Comments

Farida

16-May-2022 08:13 PM

👌👌

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Haaya meer

16-May-2022 07:02 PM

Very nice

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Muskan khan

16-May-2022 06:27 PM

Nice

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